“आत्मसम्मान”
“तुमको क्या लगा कि तुम्हारे साथ रहता हूँ तो मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है। यह सोचना तुम्हारा भूल भ्रम है। मैंने परिस्थिति वश निर्णय लिया तुम्हारे साथ रहने का समझी।”
शादी के बाद पहली बार अनुज को इस तरह आग बबूला होते हुए देखा था दीप्ती ने । वह आवाक सी मूंह खोले उसे देखे जा रही थी। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह वही अनुज है जो उसकी दीवानगी के कारण अपना घर -बार, माँ -बाप, भाई- बहन ,नाता -रिश्ता ,लोक -समाज सब कुछ छोड़ कर दीप्ती के साथ शादी के बंधन में बंधने के लिए तैयार हो गया था।
दीप्ती जैसा चाहती अनुज वैसा ही करता। वह हर कदम पर वह दीप्ती का साथ देता। उसके इजाजत के बिना वह कोई भी ऐसा काम नहीं करता था जो दीप्ती को नापसंद हो। दीप्ती अक्सर अपने पसंद पर इतरा जाया करती थी। सहेलियां भी मजाक उड़ाया करती थी कि दीप्ती अनुज तुम्हारा पति नहीं गुलाम है गुलाम। दीप्ती सहेलियों की बातों को सुनकर गर्व से फुल जाती और कहती-” देखा आखिर वह मेरा पसंद है। “
धनाढ्य घर की इकलौती बेटी दीप्ती को कालेज में साथ पढ़ने वाले सीधा-सादा और शर्मीला अनुज बेहद पसंद था। दीप्ती के पिता पैसों के दम पर एक से एक खानदानी और रसूख वाला परिवार ढूंढने के लिए तैयार थे । सच पूछिये तो कईयों को ढूंढ़ भी लिया था । पर बेटी की पसंद और जिद के आगे वह बेबस हो गए। सारे अरमान और सामाजिक प्रतिष्ठा को दरकिनार कर वो अपने हैसियत से काफी अलग अनुज के घर पर पहुंचे गये थे।
अनुज के पिता ने साफ शब्दों में इंकार कर दिया था। उनका कहना था कि रिश्ता हमेशा बराबर वालों में की जाती है और उनका तो कोई मेल ही नहीं है। कहां राजा भोज और कहां …..।
उसपर भी अनुज ने मना कर दिया। इंकार सुनकर बेटी ने खाना- पीना ,हंसना- बोलना सब कुछ छोड़ दिया था। आखिरकार दीप्ती के पिता अनुज के दरवाजे पर धरना देकर बैठ गए। तीन दिन तक वहीं बैठे रहे। ना तो अनुज तैयार हो रहा था और न उसके पिता शादी के लिए हाँ कर रहे थे। अजीब धर्म संकट की स्थिति थी। बात बिगड़ते देख अनुज की माँ बीच में खड़ी हो गई। उन्हें दीप्ती के पिता पर दया आ रही थी। कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो औलाद के लिए उसे झुकना ही पड़ता है। उन्होंने अपने बेटे और पति के तरफ से दीप्ती के पिता को दीप्ती के साथ अनुज की शादी के लिए हाँ कर दिया ।
माँ की बातों को अनुज टाल नहीं पाया और पिता भी चुप हो गए। उनकी चुप्पी ने शादी करने के लिए मौन स्वीकृति दे दी।
धूम -धाम से अनुज और दीप्ती की शादी हुई थी। खुशी -खुशी दीप्ती बिदा होकर अनुज के घर बहू बनकर आ गई। कुछ दिन तक सब ठीक रहा उसके बाद अपने आलिशान घर में एशो -आराम से रहने वाली दीप्ती को अनुज के काम चलाऊ घर में घुटन होने लगी। अब तक अनुज पर दीप्ती का प्यार हावी होने लगा था। प्रायः दीप्ती अपने प्यार का झूठा कसम खिलाकर उससे अपने मन की बात मानने के लिये विवश करने लगी। वह जो भी कहती, सही नहीं होने के बावजूद भी अनुज मान लेता था। ऐसे ही करते -करते एक दिन अनुज पत्नी मोह में अपने घर को छोड़ दीप्ती के साथ ससुराल में आकर रहने के लिए तैयार हो गया।
समय बीतता गया। अनुज की बहनों की शादी हो गई। अनुज ने पिता की मदद तो की, पर अपने घर रहने नहीं आया ।वह आने का जब भी प्रयास करता दीप्ती कोई न कोई बहाना बनाकर टाल जाती। अनुज के माता-पिता भी बेटे पर दबाव डालने की कोशिश नहीं करते थे उन्हें बस औलाद की खुशी ही चाहिए थी और क्या।
समय की अपनी गति और नियति होती है। एक दिन अनुज के पिता को भयंकर हार्ट अटैक हुआ और वह काल के गाल में समा गए। बेचारी माँ दिल में दर्द और आखों में आंसुओं के साथ अकेली रह गईं।
कुछ भी हो अनुज माँ को अकेली कैसे छोड़ सकता था। सो अब वह माँ के साथ ही रहने लगा। कुछ दिन बाद दीप्ती वापस अपने पिता के घर जाने की जिद करने लगी। पहले तो अनुज ने जाने से मना किया पर माँ के समझाने पर वह एक शर्त के साथ तैयार हो गया।
दीप्ती मन ही मन बहुत खुश थी इस बार भी अनुज ने उसकी इच्छा को सम्मान दिया था। वह अपना और अनुज के सारे समानों को पैक कर रही थी। तभी अनुज अपने हाथ में दो एयर बैग लेकर कमरे में घुसा
दीप्ती बोल पड़ी-“”यह क्या है अनुज?”
” अरे !भाई दिख नहीं रहा है क्या? बैग है बैग “
“लेकिन किसलिए?
मेरे पास तो ऑल रेडी पहले से है इसका क्या करूंगी!”
“यह तुम्हारे लिए नहीं, माँ के लिए है इसमें उनका सारा समान पैक कर देना ।”
“लेकिन क्यूं?”
“क्योंकि माँ भी हमारे साथ जायेंगी।”
“उन्होंने कहा है क्या?”
“वो क्यूं कहेंगी मैं जहां रहूंगा माँ मेरे साथ ही रहेंगीं न!”
“अनुज बुरा नहीं मानना तुम्हें मेरे पिता जी के स्टेटस को भूलना नहीं चाहिए। उन्होंने सिर्फ तुम्हें अपने घर में रखने का परमिशन दिया है ना कि पूरे खानदान को।”
अनुज की भृकुटी तन गई वह अपने अंदर के ज्वालामुखी को रोक कर कुछ बोलने वाला था कि दीप्ती बोल पड़ी-” सिर्फ तुम्हारे प्यार की वजह से मैं इस गलिज जैसे घर और यहां के लोगों के साथ निभा लेती हूं समझे!”
“माँ को मेरे घर लेकर जाओगे….. सब लोग क्या सोचेंगे।पिताजी का घर सराय थोड़े ही है कि जो चाहे
आश्रय ले ले।”
दीप्ती की बात सुनते ही अनुज आपे से बाहर हो गया। चिल्लाकर बोला-” मेरी माँ के लिए तुम्हारे पास इतनी घटिया सोच है ।”
उन्हीं की जिद की वजह से मैंने तुमसे शादी के लिए हामी भरी थी। उनके लिये तुम्हारे दिल में यही सम्मान है। वाह रे रिश्ता दिख ही गया अन्तर अपने पराये का।
“कान खोल कर सुन लो मैंने तुमसे शादी सिर्फ अपने माँ बाप की इच्छाओं का मान रखने के लिए किया था। अपना आत्मसम्मान गिरवी नहीं रखा था तुम्हारे पास समझी।”
भले ही हमारी हैसियत तुम्हारे पिता से कम है लेकिन हमारा स्वाभिमान बहुत ही कीमती है जिसे भूल कर भी खरीदने की कोशिश मत करना। उठाओ अपना सामान और जितनी जल्दी हो सके मुझे अपने बोझ से मुक्त करो। मुझे अपनी ज़मीर नहीं बेचनी है।
कमरे के बाहर खड़ी माँ ने बेटे को ऊँची आवाज में बोलते हुए सुना तो वह अंदर आ गई।अनुज को उँगली के इशारे से चुप रहने के लिए बोलते हुए कहा-” क्या हुआ जो इतना गुस्सा हो रहा है बेटा,ऐसा तो तू नहीं था। “
“हाँ ठीक ही कहा माँ तभी तो आज मुझे एहसास हुआ है कि मुझसे जिंदगी में बहुत बड़ी चूक हुई है।लेकिन कोई बात नहीं देर से ही सही मैं अपने आत्म सम्मान को खोने नहीं दूँगा।”
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर, बिहार