“जूठन”
पापा आपको पता है न कि कल इंडीपेंडेंस डे है यानि… कि स्वतंत्रता दिवस!”
“हाँ है तो…..क्या हुआ बताओ !”
“बताना यही है कि हम लोग सब मिलकर इसे सेलिब्रेट करेंगे!”
मैं खुश होकर बोली-” हाँ बेटा तुम बिल्कुल सही कह रहे हो। कल ही के दिन हमारा देश गुलामी की जंजीरों से आजाद हुआ था। इसलिए हम इसे स्वतंत्रता दिवस कहते हैं। ”
“ओह मम्मी पता है मुझे तभी तो हमलोग को स्कूल जाना पड़ता है !”
” बेटा क्या कहा ..जाना पड़ता है। क्या तुम्हें खुशी नहीं होती है अपने हाथ में अपने देश का तिरंगा लहराते हुए!”
बिट्टू इत्मीनान से बोला-” होती है मम्मी! पर उससे भी ज्यादा खुशी होती है जब पापा हमें अपने साथ पार्क में घुमाने ले जाते हैं और मेरे पसंद का जलेबी खिलाते हैं। ”
बेटे के मुँह से अपनी तारीफ सुन कर पापा फुले नहीं समा रहे थे। बिट्टू को पुचकारते हुए बोले-” बेटा एकदम पक्का! तुम अपने स्कूल से लौट कर आओ हम सब चलेंगे स्वतंत्रता दिवस की पार्टी करने। ”
उस दिन झंडोत्तोलन के बाद सब लोग स्कूल से, और ऑफिस से जल्दी ही घर आ गए।जल्दी ही सबके साथ बाहर घूमने का प्रोग्राम बन गया। मेरा मन तो नहीं था फिर भी बच्चों का मन रखने के लिए मैं भी साथ चलने के लिए तैयार हो गयी । हम सब बच्चों के साथ दो घंटे तक शहर के शहीद स्मारकों और अनेक राष्ट्रीय धरोहर को घूम घूमकर निहारते रहे।
बच्चों के साथ मैं भी थक चुकी थी। जैसे ही बिट्टू की नजर एक रोड किनारे स्थित बड़े से ढाबे पड़ी वह चहक उठा बोला-“पापा अब हो चुका घूमना-फिरना चलिए मुझे भूख लगी है।”
पापा उसे लेकर ढाबे में गए। उन्होंने बिट्टू के पसंद के अनुसार खाने की चीजों में सबसे पहले जलेबी मंगवाई। वह जमकर खाया पर थाली में खाने की वेरायटी ज्यादा होने के कारण वह प्लेट में छोड़ने लगा।
मैंने बहुत समझाने की कोशिश की पर वह अपना पेट पकड़ और नहीं और नहीं करने लगा।
“बेटा प्लेट का सारा खाना खत्म करो! अन्न का अपमान नहीं करते!”
मैं बिट्टू को समझा रही थी और वह था कि जिद किये बैठा हुआ था कि अब और नहीं खाएगा। मेरे ज्यादा दबाव डालने पर वह रोनी सूरत बना कर पापा को देखने लगा।
“पापा मुझे और खाने का मन नहीं है।”
मैंने उसे फिर से झिड़की देते हुए कहा-” पापा से पैरवी लगाने से नहीं होगा। चलो पूरा खाकर खत्म करो।”
बिट्टू को पता था कि उसकी गुहार लगाने पर पापा पिघल जायेंगे। उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा-” क्यूँ पीछे पड़ी हो बच्चा है नहीं खाना चाहता है तो जबरदस्ती मत करो। मूड खराब हो जाएगा उसका। ”
मैं भी तन गई। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था जब मैं बच्चे को कुछ भी सिखाती रहती हूँ उस समय कोई बीच में ना पड़े। इससे बच्चे सिखाई बातों को अहमियत नहीं दे पाते हैं।
हमारी झीक- झीक सुन कर ढाबे का मालिक हमारे टेबल के पास आकर बोला-” मैडम बच्चे को मत डांट लगाइए प्लेट का खाना बर्बाद नहीं होगा….।”
“कैसे नहीं बर्बाद होगा ।”
वह बोला-“मेरा नौकर है न उसका बच्चा यह खा लेगा….।”
मैनें पहले घूरती नजर से ढाबे मालिक को देखा फिर उसके हाथ के इशारे की ओर मुड़कर देखने लगी। एक छोटी उम्र का बच्चा ढाबे के कोने में खड़ा कुछ धो रहा था। वह बिट्टू के ही उम्र का रहा होगा। पता नहीं क्यूँ मैं उसे देखे जा रही थी और वह मुझे…।जैसे ही मेरी और उसकी नजरें टकराई वह वहाँ से भीतर चला गया। उस असहाय से बच्चे के चेहरे को देख मेरा कलेजा पसीजता जा रहा था। मैं क्षण भर के लिए उसमें बिट्टू को ढूंढने लगी।
मुझसे रहा नहीं गया मैं हाथ धोने के बहाने से उसी कोने में चली गई जहां से वह बच्चा दिखा था। वहाँ पहुँचते ही वह बच्चा पता नहीं किधर चला गया। मैं भी जिद पर आ गई। मना करने के बावजूद ढाबे के पीछे घुस गई। वहाँ जाकर देखा तो मेरी ममता कराह उठी। एक ही उम्र के दो बच्चे दो बड़े- बड़े जूठे बर्तनों से भरे टब के नीचे बैठे ग्राहकों के छोड़े हुए खाने को खा रहे थे। मुझे देखकर उसमें से एक पानी से भरे बाल्टी के पीछे छुपने लगा और दूसरा बोला-” मैडम जी बहुत भूख लगी थी इसीलिए थोड़ा सा खा लिया है आप अंदर जाकर मालिक को मत बताना।
सच कहती हूं बच्चे की मुँह से निकले एक -एक शब्द ने मेरे रूह को झकझोर दिया। हाय रे भूख ……और इस बचपन की बदनीयती! एक क्षण को लगा जैसे माँ भारती मेरे हृदय पर वार कर कह रही हैं-” देख लो यही आजादी है। जश्न मनाने वाले हृदयहीन इस देश के लोगों ने इन मासूमो को कौन सी खुशी दे रखी है। ”
मेरा रोम -रोम कांप उठा। झूठी आजादी का ढिंढोरा पीटने वाले उपर से नीचे तक के तंत्र का झूठा पोल खुलता दिखा। सब ढोंग करते हैं कोई आजादी नहीं मिली माँ भारती के इन लाडलों को। जिस देश का बच्चा जूठा खाये….जूठे बर्तन धोए… उस देश के लोगों पर धिक्कार है जो आजाद होने और उसका जश्न मनाने का नाटक करते हैं। छोटे बच्चों को काम में लगाना कानूनी रूप से अपराध है। यहां रोज हजारों लोग आते हैं और अपने पसंद का खाकर जाते हैं ।क्या उन्हें यह मासूम नहीं दिखते। जो गरीबी और पेट के लिए जूठा खाते हैं और जिनसे जूठे बर्तन धुलवाये जा रहे हैं।
मेरे ऊपर जुनून सवार हो चुका था। मैंने उन दोनों बच्चों को वहां से उठाया और अपने साथ अपने टेबल तक ले आई। ढाबे में बैठे सारे लोग भौचक होकर देख रहे थे। ढाबे के मालिक के चेहरे पर हवाई उड़ रहा था। वह बार -बार सफाई दे रहा था। मैंने जब उन दोनों बच्चों के लिए खाना मंगवाया तो वह झिड़क कर बोला-” मैडम आप क्यूँ इनके चक्कर में पड़ी हैं इनकी आदत है जूठा खाने की। मेरे ग्राहक इनको यहां बैठे देखेंगे तो कल से आयेंगे ही नहीं मेरे ढाबे में। मेरा तो बिजनेस ही चौपट हो जाएगा। ”
इस बार मेरे पति ने भी मेरा साथ दिया। और ढाबे मालिक को डपटकर कहा -” चुपचाप से बच्चों को खाना खिलाओ और अबतक जितने काम इन्होंने किए हैं उसका हिसाब जोड़कर दो वर्ना जेल की हवा खाने के लिए तैयार रहना।”
जेल का नाम सुनते ही ढाबा मालिक माफी मांगने लगा। उसने जल्दी से वेटर को बुलाया और बच्चों के लिए खाना मंगवाया। फिर आश्वस्त किया कि वह बच्चों के पैसों का हिसाब कर देगा।
थाली में सलीके से परोसे गये तरह-तरह के खाने को देख बच्चें कभी प्लेट को देख रहे थे और कभी मुझे। मेरे बार -बार कहने पर भी वे खाने को हाथ नहीं लगा रहे थे। मैंने थाली में रखे एक जलेबी के दो टुकड़े किये और उन बच्चों के मुँह में खिला दिया। आसपास बैठे उनकी ही उम्र के बच्चों ने जोड़ से तालियां बजा दी। बच्चों को तालियां बजाते देख ढाबे में बैठे लोग भी खड़े होकर तालियां बजाने लगे।
छोटा ही सही लेकिन मेरे प्रयास ने दो मासूमों को गुलामी से मुक्त करवाया था। मैं बहुत खुश थी अपनी भूमिका पर और स्वतंत्रता के लिए उठाए गए अपने एक कदम पर। मैं यह नहीं कहती कि मैं स्वतन्त्र भारत के समर की सिपाही हूँ पर मैंने वही काम किया था जो काम उस छोटी सी गिलहरी ने तब किया था जब माँ सीता को लंका से मुक्त करने के लिए भगवान श्रीराम समुद्र पर रामसेतु बना रहे थे।
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर,बिहार