ढेल फोड़वा
आज भले ही हम और हमारे बच्चे इलेक्ट्रॉनिक की दुनिया में आ चुके हैं। एक से बढ़कर एक मनोरंजक साधन है बच्चों को बहलाने के लिए। फिर भी बच्चे गायब हो जाने वाले किरदारों को ही ज्यादा पसंद करते हैं। जैसे शुरू- शुरू में शक्तिमान , सुपरमैन रामायण,महाभारत सीरियल के दिवाने होते थे और आज के बच्चे डोरिमौन जैसे सीरियल के दिवाने हैं।
लेकिन हमारे ज़माने में नानी- दादी ही थी जो हमारे लिए तरह-तरह के मनोरंजन के साधन ढूंढते रहती थीं ।
हमारी दादी भी वैसी ही कहानियाँ सुनाने में पारंगत थीं। ऐसे मोड़ पर आकर रुक जाती जिसके आगे क्या हुआ होगा? जानने के लिए हम सभी दिन बीतने का इंतजार करते रहते कि कब रात होगी और हमें सुनने को मिलेगा कि आगे क्या हुआ था।
हमारे गांव का घर बिल्कुल पुरानी भूतीया हवेली की तरह ही था। घर से बाहर बरामदे से होकर सीढ़ियां ऊपर जाती थीं। एक बार चढ़ने के बाद मज़ाल है जो अकेले कोई बच्चा नीचे उतर जाये। ऊपर से दूर -दूर तक विरान खेत जो गेहूँ कटने के बाद खाली पड़े रह जाते थे, दिखाई देते थे। बहुत दूर नजर दौड़ाने पर बड़े- बड़े बरगद के और पीपल के पेड़ दिखाई देते थे और उसी पेड़ के के आसपास दादी के कहानियों के सारे भूत अपना डेरा डाले रहते थे। उन्हीं भूतों में एक भूत था “ढेलफोड़वा”
हम सभी भाई बहनों में सबसे शरारती,नटखट और ढीठ बच्चा मेरे छोटे भैया थे। उन्हें किसी तरह का कोई डर नहीं लगता था। गर्मी के दिनों में दादी घर के छत पर शीतलपाटी बिछा कर बिछावन लगवा देती थीं। जब माँ हम सभी को खिला पीला देतीं तो दादी की ड्यूटी होती थी सारे बच्चों को समेट कर छत पर ले जायें ताकि माँ , ताई बचे हुए काम को निबटा सके।
बिस्तर पर बीच में दादी सोती और अगल- बगल में हम सभी बच्चे। ताऊजी ,चाचाजी के बच्चों को मिलाकर हम आठ – दस भाई बहन थे। किस्सा शुरू होते ही सन्नाटा छा जाता था । सभी दातों में उंगली दबाये दादी की रहस्मय कहानियों के साथ -साथ उसी भूतो वाली दुनियां में बीचरन करने लगते।
दादी की भूतीया कहानियों को सुनते -सुनते सारे बच्चे कब सो जाते पता नहीं चलता था। छोटे भैया पर उन डरावने कहानियों का कोई असर नहीं होता ।वह बीच में से धीरे से उठकर नीचे उतर जाते और माँ के पास जाकर सो जाते । सुबह अकड़कर सबको सुनाते मैं तुम सब लोगों की तरह नहीं डरता भूतों से । अपनी
बहादुरी का लोहा मनवाने के लिए कहते कि हाँ मैंने कल देखा था एक भूत उजले कपड़े में खेतों के बीचो बीच खड़ा था। पर मैं डरता थोड़े न हूँ तुम सब की तरह और जोर से हंस देते।
दादी की कहानियों में एक कहानी था “ढेलफोड़वा” भूत का । वह भूत जिसको सुनसान में पकड़ लेता था उससे रात भर बंजर खेतों में ढेला फोड़वाता था जब तक कि वह आदमी बेहोश हो कर गिर न जाये। दादी का इस कहानी को कहने का अंदाज ऐसा था कि सभी बच्चे विरान खेतों की ओर देखते और डर से आंखें मूंदकर सो जाते।
एक दिन सुबह- सुबह हमारी नींद खुली तो हमने देखा नीचे लोगों की भीड़ लगी है। हम सब नीचे दौड़े छोटे भैया बिस्तर पर बेहोश पड़े थे और वैद जी जो उस समय डॉक्टर को कहा जाता था उनका नब्ज पकड़े बैठे थे। माँ रो रही थीं। पास में दादी खड़ी उनको कुछ समझा रही थीं। गाँव भर के लोग तरह-तरह की डरावनी आपबीती सुना रहे थे। हम भी जाकर दादी के पास लिपट गये। जब छोटे भैया को होश आया तो बताया कि उन्होंने दो “ढेलफोड़वा” भूत को अपनी आँखों से खेत की ओर जाते हुए देखा था एक ने तो उन्हें पकड़ लिया था और ले जा रहा था खींचकर ढेला फोड़ ने के लिए।
बड़ों ने उनकी बात मानी या नहीं लेकिन हम बच्चों के होश उड़ गये। हम वही खड़े थर -थर कांप रहे थे। छोटे भाई ने तो पैंट भी गिला कर दिया।अगले दिन हम किसी सूरत में छत के ऊपर जाने के लिए तैयार नहीं हुए।
जब बड़े हुए तब पता चला कि गाँव की नई नवेली बहुरिया हमारे घर के पिछवाड़े से होकर तीन बजे रात में ही खेतों में अपना मूंह ढके लोटा लेकर जाया करती थीं। संयोग से उस रोज भैया सीढियों से चुपके से उतरकर नीचे जा रहे थे तभी उन्होंने दो भूतों को जाते हुए देखा और वहीँ बेहोश हो कर गिर पड़े थे। अब आप समझ गए होंगे कि वह दोनों भूत कौन थीं और कहां जा रहीं थीं।
स्वरचित एंव मौलिक
डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर ,बिहार