तू मेरी कली
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मैं बगिया हूँ तू मेरी “कली”
माँ “तरू” है तू उसकी डाली,
बड़े प्यार से तुझको सींचा है
वह धरा की है सुंदर माली।
तू”खिलना” जितना जी चाहे
मत भूलना पर अपनी राहें,
खुशबु फ़ैलाना खिलकर तुम
छू लेंगी आस्मां तेरी बाहें।
तू भोली है”नादान” नयी
तुझे भौरों की पहचान नहीं ,
मत आना उनकी बातों में
तुझे दे ना दे कोई जख्म कहीं ।
तेरी चारों ओर मडरायेंगे
तुझे गीत प्यार के सुनायेंगे,
प्रेमी नहीं “बेरहम” हैं ये
तेरा लहू चूसकर जायेंगे।
एक माली की बगिया उजड़ गई
अधखिली कली थी सिहर गई,
भौरों की उसपर पड़ी नजर
खिलने से पहले बिखर गई।
बांध लो गांठ नसीहत है
यह सपना नहीं हकीकत है ,
दूर ही रहना गैरों से
वह सहचर नहीं मुसीबत है।
स्वरचित एंव मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर ,बिहार
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