“पिता का दर्द”
मीनू जल्दी-जल्दी घर का जरूरी सामान लेकर भागी जा रही थी। शाम होने को थी। समय हो गया था बाज़ार बंद होने का। हड़बड़ी में उसने कुछ लिया और कुछ छूट गया। आधे रास्ते पर आई तो याद आया कि घर में आलू नहीं है।
अब क्या करें ,बेटा तो हरी सब्जी खाता ही नहीं। आखिर माँ का मन था उसने सोचा चलो वापस जाकर ले ही लेती हूँ , जो होगा देखा जायेगा। कम से कम मेरा बच्चा तो खुश हो जायेगा। वह पिछे मुड़कर वापस चौक पर गई जहां सब्जी मंडी था वहाँ अक्सर आलू प्याज मिल जाता है।लेकिन उसके जाने से पहले ही सबने अपनी दुकानें बंद कर दी थी।
थोड़ी दूर पर एक सब्जीवाला अपना ठेला लिये तेज कदमों से चला जा रहा था। शायद उस बेचारे को भी तो डर था पुलिस वाले सीधे डंडे बरसाने लगते हैं ! अक्सर निरीह और लाचार लोग ही पुलिस के निशाने पर ज्यादा होते हैं।
मीनू ने जोड़ से आवाज देकर उसे रोका, पहले तो वह अनसुना कर दिया। पर दो तीन बार पुकारने पर वह ठिठक गया ।
पास जाकर मीनू ने पूछा -“भईया आलू है क्या?”
वह बोला, “दीदी है तो पर ज्यादा नहीं है।”
“अच्छा…जितना भी है दे दो मुझे”
“माफ करना हम नहीं दे सकते हैं दीदी। ”
– क्यूँ ?
“क्यूँ नही दे सकते हो बेचने के लिए ही रखा है ना !”
“हाँ बेचने ही के लिये था पर थोड़े से ही बच गए हैं ”
“अरे भाई, मुझे थोड़े ही चाहिये जितना है ना सब दे दो।”
जल्दी करो,
वह बोला- ” काहे जिद कर रही हैं हम नहीं दे सकते ।”
अब मीनू को गुस्सा आ रहा था,वह खीज कर बोली -“अजीब आदमी हो तुम आलू रखा हुआ है फिर भी दे नहीं रहे ।”
मीनू ने थोड़ा अकड़ कर कहा- “तुम्हें पता है मेरा बेटा आलू के सिवाय कोई सब्जी नहीं खाता। सारी सब्जियां घर में है पर उसे पसंद नहीं।”मैं उसके हरेक पसंद का ख्याल रखती हूँ।
हाँ. पर तुम क्या जानो….तुम माँ नहीं हो ना,तुम्हें क्या पता माँ के मन को !”
“दीदी मन तो बाप का भी होता है ,पर वह पसंद नहीं अपने बच्चों के पेट भरने का जिम्मेदारी उठाता है।”
वह बड़ी मायूसी से हाथ जोड़कर बोला- “दीदी हम माँ तो नहीं है पर “ममता” इस गरीब बाप के पास भी है ।”
आज मेरी सब्जियां इस बन्दी के फेरा में नहीं बिक पाई है।उतने पैसे भी नहीं मिले कि हम बिन माँ के बच्चों के लिए घर पर रासन लेकर जायेंगे। दोनों बच्चे टूकुर -टूकुर राह देख रहे होंगे ।कम से कम यही आलू उबाल कर उनका भूख तो मिटा ही देंगे ।”
उसकी बातो को सुनकर मीनू के हाथों से सामान का झोला फिसलने लगा। सब्जी वाले की आँखों में तैरते आंसुओं को देखकर मीनू का सारा गुस्सा आँखो से पिघलने लगा। माँ की “ममता” एक पिता के “दर्द “के सामने बहुत छोटी हो गई थी ।
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा
मुज़फ़्फ़रपुर , बिहार