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Anupama  

“मंगलसूत्र”

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सीधे सरल और सहृदय थे हमारे गांव के शिक्षक बाबु साहब जिन्हें हर कोई मास्टर जी के नाम से संबोधित करता था। शायद ही कोई गाँव का बच्चा होगा जो उनसे अच्छी शिक्षा नहीं लिया होगा। बच्चे बुढ़े सभी उनका आदर करते थे। 

मास्टर जी को गुजरे दो साल हो चुके थे। पिछले साल जैसे -तैसे उनकी बरसी का श्राद्ध पंडित जी ने करा दिया था लेकिन उनका मानना था कि पुत्र के हाथों तर्पण से ही पिता को तृप्ति मिलती है ।

   माँ के द्वारा इस बार बहुत ही मिन्नतों के बाद उनका बेटा पितृ पक्ष में अपने पिता का श्राद्धकर्म- तर्पण आदि करने मुंबई से अपने बेटे के साथ आया था। आते ही उसने अपनी अकड़ दिखाते हुए माँ को कह दिया कि पिता जी के श्राद्ध में जितना खर्च करना चाहती है कर सकती है। जिसको बुलाना हो ,जिनको खिलाना हो या फिर जितना दान पुण्य करना है बेहिचक कर ले पैसों की कोई चिंता नहीं है। अगर कोई कमी है तो उसे समय की है । वह दो दिन से ज्यादा यहां नहीं रुक सकता है। 

माँ ने समझाने की कोशिश की -”  बेटा माँ- बाप के सम्मान के लिए पैसा  ही सबकुछ नहीं होता है बस मन में श्रद्धा भाव होनी चाहिए।”

  बेटा झुंझला कर बोला-” बस करो माँ, खाली हाथ और खाली जेब से  कुछ भी नहीं होता दुनियां में, पिताजी के पास नसीहत  देने के सिवा कुछ भी नहीं था।  पिछले बरसी में और कल के श्राद्ध में पैसे का खेल देख लेना अपनी आंख से।”

       माँ ने कुछ भी नहीं बोला। अगले दिन घर के सामने बड़ा सा पंडाल लग गया था। श्राद्ध कर्म की तैयारी पूरे जोर- शोर से हो रही थी। पंडाल के दूसरे कोने में ब्रह्मभोज के लिए पकवान बनाये जा रहे थे। सैकड़ों की संख्या में गांव वालों को भोजन कराने के लिए बुलाया गया था। पांच की जगह पच्चीस ब्राम्हण भोजन जीमने पहुँच गए थे।
जो भी आया वाह- वाह कर उठा। सब मास्टर जी के   कर्मों का गुणगान कर रहे थे।

  पंडित जी बोले-”  बहुत भले मानस और नेक विचारों के इंसान थे आपके पिताजी । उनके सत्कर्मों का फल दिख रहा है। आज यह सारा इंतजाम देख कर उनका आत्मा जुड़ा गया होगा।”

पूजा-तर्पण शुरू था पंडित जी ने बेटे को कुछ पैसा पिताजी के फोटो के पास चढ़ाने के लिए  कहा । बेटे ने एक पांच सौ  के नोटों की माला फोटो के ऊपर पहना दिया।  देखने वाले की आंखें आश्चर्य से चौड़ी हो रही थी। पंडित जी गद् -गद् हो गए। 

चढाईये कुछ द्रव्य इस पिंड पर भी….मास्टर जी के बेटे ने अपने बगल में बैठे अपने बारह साल के बेटे के तरफ देखा…इशारा समझते ही वह पांच सौ का नोट बैग में से निकाल कर पंडित जी के तरफ बढ़ाने लगा।

पंडित जी थोड़े अकचका कर बोले “-  बेटा मुझे नहीं पैसा इस पिंड पर चढाईये और कुछ इस लोटे के पास रखिये अपने पूर्वजों के नाम पर फिर अपने पुरखों का ध्यान करिये।”

मास्टर जी का  बेटा हाथ की घड़ी  देखते हुए बोला- “पंडित जी जो चढावा चढ़ाना है एक बार में ही चढ़ाने के लिए कहिये न एक-एक कर बेकार समय बर्बाद करवा रहे हैं।  यह लीजिये यह पांच हजार रुपये का बंडल है  एक बार में ही पिंड के नाम पर चढा दीजिये।”

पंडित जी कुछ पल के लिए झेप से गए। उनको इस बात का आभास हो गया था कि बेटा गुमानी में बोल रहा है। फिर भी उन्होंने नजर अंदाज कर मंत्र पढ़ना जारी रखा।

श्राद्ध कर्म संपन्न हुआ। जितने लोग उपस्थित थे श्राद्ध कर्म में उनको भी पंडितों के साथ ही भरपेट भोजन कराया गया।
अंत में दक्षिणा देने की बारी आई तो पंडित जी ने कहा-” बेटा आपको अपने पिता के आशीर्वाद से किसी चीज की कमी नहीं है जितनी मन में श्रद्धा हो दक्षिणा दीजिये।”

मास्टर जी का बेटा अपनी भृकुटी तानकर बोला-”  श्रद्धा को छोड़िये पंडित जी आपको जो चाहिए जितना चाहिए बोलिए मैं सक्षम हूँ देने के लिए और यह बार -बार पिताजी की दुहाई देने की जरूरत नहीं है।”

पिताजी एक शिक्षक थे और उनके पास शिक्षा देने के अलावा कुछ भी नहीं था। सिर्फ शिक्षा लेकर घूमने से जीवन नहीं चलता। उन्होंने हमें जिंदगी में अभाव के अलावा कुछ भी नहीं दिया। आज जो भी आप ताम – झाम देख रहे हैं न सब मेरे पैसे का खेल है जो मैंने अपने  दिमाग से कमाया है। “

” बेटा इतना भी अहम ठीक नहीं  ,मनुष्य अपने माता-पिता के आशीर्वाद से ही दिन दूना रात चौगुना होता है। कहा भी गया है बढ़े पुत्र पिता के धर्में ,खेती उपजे  ….।”

“मेरे पास फालतू का समय नहीं है जो बैठ कर गीता का गुणगान सुनता रहूँ।  पंडित जी  मैं ने अपना बेशकीमती समय निकाला है इस आडंबर के लिए, आप को कितना दक्षिणा चाहिए बिना झिझक मांग लीजिये।”

बेटे के मूंह से अहंकार फूटते  देख वहीं खम्भों की ओट में खड़ी माँ ने आगे बढ़कर बात संभालते हुए कहा-“
बेटा दक्षिणा माँगा नहीं जाता तुम अपनी इच्छा से जो  चाहो दे दो। “
बेटे ने फिर एक पाँच हजार नोटों का बंडल पॉकेट से निकाला और माँ को देते हुए बोला “-  यह लीजिये माँ आपको जितना बाँटना है बांटते रहिये मुझे मुक्त कीजिये इस दान पुण्य से।”
मुझे फ्लाइट पकड़ना है मैं नहीं रुक सकता।

वहां खड़े मास्टर जी के कुछ उम्रदराज मित्र आपस में बात करने लगे -“अरे भाई बेकार पंडित जी समझा रहे हैं , ये आजकल के नौ सीखिए औलाद हैं भाई, इन्हें नींव से मतलब नहीं सिर्फ महल पर नजर रहता है । ऐसे संस्कार तो नहीं थे मास्टर जी के। यह बरगद के नीचे बबूल कहाँ से पैदा हो गया।  इसको अपने माता-पिता के आशीर्वाद की कोई आवश्यकता नहीं है। ये अपना और अपने पैसे का रुतबा  दिखा रहा है जिनके पास श्रद्धा नहीं वो श्राद्ध क्या करेंगे ।”

माँ  बंडल में से कुछ नोट निकाल कर पंडित जी के पैर पर रखने लगीं,

पंडित जी  तत्काल अपना पैर पीछे की ओर खींचते हुए बोले-” माता जी हम ब्राम्हण हैं भिखारी नहीं। जिस में श्रद्धा नहीं वैसे दान का क्या महत्व है। हमें यह भीख स्वीकार नहीं है। “

पंडित जी ने अपने साथ आये सभी पुरोहितों को उठकर चलने का इशारा किया। मास्टर जी की पत्नी अचानक से पंडित जी के पैर पर गिर पड़ी उनकी आंखों से ग्लानी के आंसू बह रहे थे। वह रोते हुए बोली-” पंडित जी बेटे के अहंकार की सजा एक मृत  आत्मा को मत दीजिये।  हमारे संस्कारों में ही कोई खोट था जो बेटे को अहंकारी बना दिया है ।

नहीं…नहीं बिल्कुल भी नहीं हमने अपना काम कर दिया है हम ऐसे अहंकारी का एक रुपया भी नहीं लेंगे ।

पंडित जी उठकर जाने लगे।
वहां खड़े सभी लोगों ने निवेदन किया पर पंडित जी कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थे। मास्टर जी की पत्नी हाथ जोड़े वहीं बैठ कर रोने लगीं l

मुझे क्षमा कीजिये माताजी आपका दिल दुखाने मेरा कोई मनसा नहीं है…। ठीक है आप अपने पति की आत्मा की शांति के लिए देना चाहती हैं तो उनकी कोई निशानी हमें  दान में दे दीजिये हम उसे ही दक्षिणा के रूप में स्वीकार कर लेंगे।
माँ अपने आंसू पोछते हुए कुछ सोचने लगी उनके पास क्या था जो था वह मास्टर जी की बीमारी में बिक गया था और जो दिख रहा था वह बेटा का ही दिया हुआ था। वह घर के अंदर गईं और मुट्ठी में एक काग़ज़ का पुड़िया लिए बाहर आ गईं। उन्होंने पुड़िया पंडित जी के पैरों पर रख दिया।  उपस्थित सब लोग विस्मित हो देखना चाहते थे कि आखिर उसमें है क्या? 

पंडित जी ने पुड़िया उठाया और खोलकर देखा देखते ही  उनकी आँखों में आंसू भर आए ।सभी विस्मित थे कि क्या हुआ ? पंडित जी ने कहा-” माता जी यह आप क्या दे रही हैं यह “ढोलना” है !! !!!!
माँ ने रोते हुए कहा पंडित जी इससे बड़ा और कोई निशानी नहीं है मेरे पास…….

स्वरचित एवं मौलिक
डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर ,बिहार

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