“मासूमियत”
स्कूल मॉर्निंग हो गया है। सुबह -सुबह जाना तो अच्छा लगता है लेकिन जब छुट्टी होती है तो उस वक्त सूर्य देव आग बरसा रहे होते हैं। ऐसे में यही मन होता है कि जितना जल्दी हो अपने घोंसले में उड़ कर पहुंच जाएं।
“आम कैसे दोगे ?
बताओ तो आम किस भाव का है?
अजीब बच्चा है बोल ही नहीं रहा! मेरा मुहँ क्यो देख रहे हो!
नही बेचना है क्या?
जल्दी बोलो बहुत गर्मी है!”
दो छोटे-छोटे बच्चे चिलचिलाती धूप में बोरा बिछाये एक दूसरे से चिपक कर बैठे थे। एक छोटी-सी टोकड़ी में लगभग तीन-चार किलो पके आम थे। मैनें सोचा इन से ही ले लेती हूँ। गर्मी और धूप से हालत खराब हो गयी थी। जितनी जल्दी हो सके घर वापस भागना था।
मैनें जोड़ देकर पूछा- “कैसे दोगे?”
“जी आप नहीं लेंगी।”
मैंने अपनी भृकुटी टेढ़ी कर कहा “ऐसा क्यों?”
“यह मीठे नहीं है।”
“अरे क्या बोल रहे हो?
पके तो दिख रहे हैं। बिल्कुल पीले है। चख कर देखा था?”
“नहीं।”
“क्यूँ?”
मैडम जी, आम कम हो जाते ना!”
उसकी मासूमियत के आगे मैं कुछ देर के लिये भूल गई कि मैं पसीने से लथपथ हो रही थी। आम मीठे थे कि नहीं पर उस नन्ही आवाज में मासूमियत की मिठास ने मुझे वहीं रोक दिया।
मैनें फिर पूछा- “ये बताओ तुम्हें कैसे पता चला कि तुम्हारे आम मीठे नहीं हैं?”
छोटे भाई ने माथे पर के पसीने को दोनों हाथों से पोंछ कर कहा-“अभी तक दो आदमी खरीद कर ले गये और फिर वापस कर दिया। उन्होनें बताया कि मीठे नहीं है और पैसे भी कम दिये। बाबा बहुत डाटेंगे!”
मैनें कहा-“अच्छा ! माँ नहीं डाटती।”
“माँ है ही नहीं।”
“कहाँ गई?”
छोटे भाई ने आसमान की तरफ उँगली दिखाई।
मेरी नजर अनायास ऊपर चली गई । आसमान में? मेरे मुहँ से निकला जा …! जाओ.. तुझे भी इन मासूमो पर दया नहीं आई । उन बच्चों की आँखो में बेबसी देख मुझे सिहरन सी होने लगी।
मेरे माथे का सारा पसीना मेरे आँखो में उतर आया।खुद को संयत करते हुए मैनें कहा। कोई बात नहीं ,सबको वहीं तो जाना है एक दिन! है ना!
दोनों ने अपना सिर ऐसे हिलाया जैसे कोई दार्शनिक हों।
“चलो सारे आम मुझे दे दो।”
“नहीं नहीं।”
बच्चों ने रुआँसी आंखों से मुझे देखा।
“क्यूँ? आप भी वापस कर दोगी।”
“नहीं करूँगी दे दो।”
मैंने लगभग सारे आम उनसे लेकर पैसे दिये। फिर उन्हें हिदायत के साथ घर जाने को कहा। बहुत धूप है घर जाओ । दोनो बच्चे हामी भरते हुए बोरे को समेट कर पैसों को बड़े जतन से जेब में रख कर घर की तरफ जाने लगे। बार -बार पिछे मुड़कर मुझे देख ले रहे थे। उन्हें देख मेरा वातसल्य रो रहा था। मैनें इशारा कर फिर जाने को कहा। जब वे नजर से ओझल हो गये तब मैं अपने घर के लिए मुड़ी।
मैं घर आई तो मेरे हाथ में आम देख कर मेरा बेटा बहुत खुश हुआ। बोला-” वाह माँ, तुम मेरे पसंद का कितना ख्याल रखती हो! एक आम जल्दी से काट कर ले आया। मुहँ में आम का टुकड़ा रखते ही एक आँख बन्द कर बोला- ओ माँ ! यह क्या लायी हो । खट्टे हैं !!
मेरी आँखों के सामने दोनों बच्चों की सूरत घूम गई। मैंने कहा-“ओह ,तो कोई बात नहीं लाओ उसमें चीनी डालकर शेक बना देती हूँ ।
मैनें मन ही मन में कहा- ” मैनें आम नहीं उन मासूम बच्चों की आँखो में जो बेबसी थी उसे खरीदा था । “
स्वरचित और मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर, बिहार