“बरगद”
दोनों पिता-पुत्र के बीच कल से ठनी है। जंग का कारण घर के पीछे जो पुराना बरगद का पेड़ है उसी को लेकर है। जब से बेटा घर आया है एक ही रट लगा कर बैठा है कि इस बार वह बरगद के पेड़ को कटवा कर ही मानेगा।
दीपक की मनसा है कि बरगद को काट कर हटा दिया जाये । बेकार में तीन कटठा जमीन में पसरा हुआ है। उसकी वजह से घर भी छोटा सा दिखता है। अगर वह कट जाएगा तो पुराने घर को तोड़ वहां पर एक एक चार मंजिला अपार्टमेंट बन जाएगा। माँ बाबूजी रह भी लेंगे और किराया भी आता रहेगा।
वह माँ को समझाते हुए बोला -” तुम लोगों की दुनियां बहुत छोटी है और उससे भी छोटी है तुम्हारी बुद्धि। नये डिजाईन के अपार्टमेंट बनने से हजारों का इन्कम होगा।लोग थोड़े से जमीन में फैक्ट्री बना लेते हैं और यहां इतना सारा जमीन पेड़ की भेंट चढ़ गया है। आज के जमाने में पैसा का ही कदर है गाछ -वृक्ष का नहीं !
माँ समझा कर थक चुकी है कि बेटा बाबूजी उस पेड़ से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं, उनकी यादें जुड़ी हुई हैं। बचपन बीता है उनका उसकी छाँव में। शायद इसीलिए विरोध कर रहे हैं।
बाबूजी थोड़े क्रोधित होकर बोले-” तुम सब बुद्धि से हीन हो। अरे! वह बेचारा पेड़ तुम्हारा क्या बिगाड़ रहा है ।तुम्हें पता भी उसकी अहमियत। सैकड़ों पक्षियों का उसपर बसेरा है। तपती दुपहरी में गांव के लोग आकर बैठ जाते हैं। छाया ढूंढते हुए कितने पशु
आकर यहां विश्राम करते हैं। यहां तक कि बच्चों ने उसके जड़ों में झूले को बाँध रखा है। सब स्कूल से छुट्टी होते ही पहुंच जाते हैं झुला झूलने के लिए। कल को तुम्हारे बच्चे उसपर झुला झूलने का आनंद लेंगे।”
दीपक को गुस्सा आ गया वह झनकते हुए बोला-” बाबूजी आप भ्रम में हैं। अब आज के आधुनिक जमाने में एसी कमरा छोड़ कर कौन जाता है बरगद की छाँव में बैठने! और इस जमाने के बच्चे गर्मियों में समर कैंप में जाते हैं । वो नहीं आयेंगे यहां बाबा आदम के युग के बरगद पर अपना झुला डालने!”
दीपक की बातों का कोई असर नहीं हुआ बाबूजी टस से मस होने का नाम नहीं ले रहे थे। उनका कहना था कि दरवाजे पर वह पेड़ पुरखों की निशानी है। वह जाने कितने पीढ़ियों की यादों को समेटे खड़ा है।
जब भी कोई चिंता या फ़िकर उन्हें सताती है तो वह उस पेड़ की छाँव में जाकर बैठ जाते हैं लगता है जैसे वह अपने पिता की गोद में बैठे हैं। पल भर में जाने कैसे सारी समस्याएं अपने आप सुलझने लगतीं है।उन्होंने अपने माथे को झटक कर कहा-” ना -ना मेरे जीते जी वह नहीं कटेगा।”
बेटे दीपक ने उपेक्षा भरी नजरों से पलटकर एक नजर से बरगद को और दूसरी नजर से बाबूजी की तरफ देखा। अपने तर्कों का जब कोई उत्तर नहीं मिला तो बिना सोचे समझे बोल गया-” बाबूजी अगर पुराने को ढहा कर कुछ नया बन जाएगा तो क्या हर्ज है बताइये जरा ! हर माह जो हमें आपलोगों के खर्चे के लिए पैसा भेजना पड़ता है। कम से कम उसकी तो बचत होगी।”
दीपक की बात सुनते ही बाबूजी का चेहरा फक्क से रह गया। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि बेटा जिद करते करते यह बात भी बोल जाएगा। उनकी आँखें सुन्न होकर बेटे के दिल में अपने लिए जबरदस्ती के प्यार का ढोंग निहारने लगीं। कुछ बोल नहीं पाए अपने आधे खाये थाली को छोड़ हाथ धोया और आँगन से निकल गए ।
घर के पीछे गये बड़े गौर से बरगद को देखा फिर अपनी पुरानी चारपाई पेड़ के नीचे डाल कर सो गए। सोते ही आँख लग गई।
इधर दीपक की हठ बढ़ती जा रही थी। उसने घर के किसी सदस्य की एक न सुनी और फोन कर लकड़हारे को पेड़ काटने के लिए मशीन सहित कल सुबह बुला लिया।
रात में सोते समय माँ ने अपने दोनों हाथों को जोड़े डरते-डरते यह बात बाबूजी को बताई। माँ को लगा कहीं सुनते ही वह कोहराम न मचा दें इसलिए तब बताया जब सब खा -पीकर सोने चले गए थे। माँ को घोर आश्चर्य हुआ बाबूजी ने इतनी बड़ी बात सुनने के बाद भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इधर-उधर की बातें करते कुछ देर बाद वह भी सो गईं।
सुबह- सुबह दूध वाले के जोर जोर से चिल्लाने पर सब घर से बाहर दौड़े। बाबूजी बरगद के नीचे अपनी खटिया पर बेसुध पड़े थे। दीपक बाबूजी -बाबूजी चिल्ला कर उन्हें झकझोर रहा था लेकिन बाबूजी हमेशा के लिए सो गए थे। शायद उन्हें कोई बात चुभ गई थी और वह अपने औलाद की उपेक्षा सहन नहीं कर सके थे।
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ.अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर,बिहार