Close-up of a transparent hourglass with pink sand flowing, placed on a newspaper background.
Emotional Short Story
Anupama  

“नियति”

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“नहीं मुझे किसी से नहीं मिलना औरनियति का चक्र “

      बाहर गाड़ी की आवाज सुनते ही सुमन जी घर का मेन दरवाजा खोल कर बाहर निकल आईं ।उन्हें बेटे के साथ- साथ  उसकी गाड़ी की पहचान हो गई थी। उनका यह रोज का काम था। मोनू के ऑफिस जाते समय दरवाजा बंद कर लेना और आते समय जाकर खोल देना। माँ  को शायद यह काम कर के उनके दिल को बड़ा सुकून मिलता था। 

              वह कुछ बोलीं नहीं बस दरवाजा खोल मुड़ कर अंदर आने लगी तभी मोनू पिछे से माँ के आंचल को पकड़ते हुए बोला-” रुको न माँ एक खुशखबरी तो सुन लो!” 

माँ को खुशखबरी से ज्यादा मोनू का बच्चों की तरह गले से लिपट जाना लग रहा था। वह ममता से सराबोर हो गईं और बोलीं-” बेटा तू इतना खुश है ,मेरे लिए यही सबसे बड़ी खुशखबरी है। तू बस ऐसे ही खुश रहा कर ! दिल को बड़ा चैन मिलता है। ” 

“बस…बस मेरी माँ मुझे पता है मुझे…लेकिन सुन तो लो थोड़ी सी मेरी भी खुशी को। भागा -भागा आ रहा हूँ कि पहले तुम्हें सुना दूँ फिर किसी और को सुनाऊंगा ।” 

माँ बोलीं-”  अच्छा ठीक है पहले चल हाथ मूंह धो ले कुछ खा पी ले फिर आराम से बैठकर सुनाना। ” 

“माँ …तुम्हारी तरह मेरे पास सब्र करने की गठरी नहीं है जो विरले ही खुलती है.. मेरा प्रमोशन हो गया है वह भी तबादले के साथ….! 

फिर ज़ोर से माँ के गले से चिपटते हुए बोला माँ तेरा बेटा अधिकारी बन गया ….इधर देखो तो सही अपने लाल को!

माँ ने पिछे मुड़कर बेटे को कलेजे से लगा लिया उनकी आँखों से झड़ झड़ आंसु बह रहे थे….नहीं नहीं माँ इन आंसुओं की अभी कोई जरूरत नहीं है…अभी तो खुशियों को आने दो! 

माँ ने भरे गले से कहा-” बेटा यह आंसू खुशी के ही हैं।खुशी बड़ी देर से आईं हैं मेरी जिंदगी में। मैं कहती थी न कि उपर वाले के घर में देर है अंधेर नहीं…। जा जल्दी से मूंह हाथ धो ले तब तक मैं उन्हें धन्यवाद बोल कर आती हूँ।

 वह बेटे के हाथ से मिठाई का डब्बा लेकर चली गई भगवान जी की मंदिर के पास।” 

                                “माँ जल्दी -जल्दी अपना सामान पैक करना शुरू कर दो ।लगता है हमें दो तीन दिन के अंदर ही जाना पड़ सकता है।  माँ… तुम्हें पता है  हमलोग यहां से कानपुर जा रहे हैं।” 

“कानपुर?”

माँ को लगा जैसे किसी ने बिजली का झटका दिया हो। क्या कहा बेटा ! कानपुर ट्रांसफर हुआ है तेरा। ” 

“हाँ माँ, लेकिन तुम चौक क्यूँ गई?” 

“कितना अच्छा तो लगेगा तुम्हें। सालों से हम इस छोटे से कस्बे में रहते आए हैं। कम से कम शहर में रहने का सपना तो पूरा होगा न हमारा। और एक बुआ भी तो रहती हैं न कानपुर में उनसे मिलना भी हो जाएगा। पिताजी के गुजरने के बाद तो तुम कहीं गई ही नहीं। अब सबसे मिल सकती हो तुम….है न! 

 ना मुझे वहां जाना है। तुम चले जाना। मैं यहां रह लूँगी। “

“क्या हुआ माँ तुम अचानक इतनी उग्र क्यों हो गई। तुम्हें तो खुश होना चाहिये कि मेरी नौकरी की वजह से तुम अपनों से मिलजुल लोगी।”

माँ मिठाई का डिब्बा लिए वहीं अपनी आँखें बंद  बैठ गई…प्रभु, तुम्हीं बताओ मैं अब किसे दोष दूँ ?  खुद को या नियति को ! 


वक्त ने जिन यादों के ज़ख्मों पर जाल बुन दिया था उसे नियति अपने हाथों हटाने जा रही थी । जिस दर्द को बीस वर्षों से वह अपने सीने में दफ्न कर चुकी थी वह फिर से हरा हो जाएगा। बंद आँखों के आईने में उन्हें बीते बीस साल पहले का दृश्य दिख गया।

पति के गुजरने के बाद वो बिल्कुल अकेली हो गई थी। माँ -बाप के बिना मायका सुना हो गया  था। फिर उसे  वहां भला कौन देता अपने दर्द को बांटने के लिए कन्धों का सहारा।

ससुराल में सास थीं नहीं जो परिवार समेट कर रखती। ससुर जी की देखभाल बड़े भैय्या -भाभी यानि जेठानी और जेठ जी बड़ी मुश्किल से करते थे। अपने पाँच साल के बच्चे के साथ वह असहाय हो गई थी। ससुर जी ने उसे बड़ी ननद के पास कुछ दिनों के लिए भेज दिया। ताकि वह कुछ दिन अपने बच्चे के साथ शांति और सुकून से जी ले। बड़ी ननद बहुत ही दयावान तथा सुखी संपन्न थीं। ससुर जी को लगा कि बेटी के साथ रहेगी तो उसका दर्द कुछ हल्का हो जाएगा।

छह महीने के भीतर ही ननद  के पति का नीयत बदलने लगा। शायद ननद को इसका एहसास होने लगा था। सुमन के प्रति ननद के पति का व्यवहार एक नौकरानी के समान होने लगा था। उसके छोटे से बेटे को वह टहलूआ संबोधित करते थे। जब उनका व्यवहार और भी खराब होने लगा तब उन्होंने पति का विरोध करना शुरू किया।

            आज तो उन्होंने रिश्तों के धागे में कई गांठें डाल दी। चार साल के मोनू ने खेलने के क्रम में एक विलायती गमले को तोड़ दिया। लगा जैसे घर में भूचाल आ गया है। उस चार साल के बच्चे को धक्का देकर गिरा दिया। उसके बाद भी जी नहीं भरा तो सुमन के  सारे सामानों को नौकरों के कमरे में रखवा दिया।
गोद में लिए हुए वह ननद की चौखट पर बैठी अपने टूटे किस्मत पर रो रही थी । बगल में खड़ी बड़ी ननद अपने पति के तानाशाही से क्षुब्ध उसे दिलासा दे रही थीं। वह बार-बार पति से गुहार लगा रही थी कि वह  ऐसा न करें। एक शादी -शुदा बेटी का उसके मायके वालों से रिश्ता कच्चे धागों की तरह होता है। जिसे वह बड़े सिद्दत से बचाये रखती है ताकि डोर टूटने ना पाये ।
ननद सुमन को समझा रही थीं कि तभी अंदर से उसके कानों में एक कर्कश आवाज तीर की तरह चुभ  गई-” तुम्हारी भाभी कहीं भी भाड़ में जाए  पर उसे अब यहां नहीं रहने देंगे समझी तुम। मायके वालों की तरफदारी करोगी तो तुम्हारे लिए भी यहां जगह नहीं है। “

उसी क्षण सुमन ने एक हाथ में अपना बैग उठाया और दूसरे हाथ से मोनू की उंगली पकड़े स्टेशन की ओर निकल पड़ी।

  एकाएक सुमन जी के हाथ कांप गये उनके हाथों से मिठाई का डब्बा धड़ाम से नीचे गिर गया। मोनू दौड़ कर माँ के पास आया- “क्या हुआ माँ…?”

“सब ठीक तो है न?”

“नहीं बेटा.. कुछ नहीं बस यादों ने करवट लिया था। वाह रे नियति !  जिस जगह ने मुझे अपमानित किया आज वहीं ….। “

“ओह्ह माँ …टेंशन मत लो।”

  “मैं समझ गया कि तुम क्या कहना चाहती हो।  हम उस शहर में जा रहे हैं किसी के दरवाजे पर नहीं समझ गई न! नीयत खोटी हो सकती है नियति नहीं!!”

स्वरचित एंव मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर, बिहार

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